खानवां के युद्ध के परिणाम,युद्ध में राणा सांगा के पराजय के कारण और सम्पूर्ण युद्ध से जुड़ी जानकारी -The War of Khanava


(1) बाबर द्वारा राणा सांगा पर विश्वासघात का आरोप लगाना - बाबर ने अपनी कथा 'बाबरनामा' में राणा सांगा पर सन्धि करने और विश्वासघात करने का आरोप लगाया। हमने इब्राहिम लोदी को परजित किया और दिल्ली व आगरा पर अधिकार स्थापित किया लेकिन वह उफिर (सांगा) अभी तक नहीं आया।धौलपुर और बयाना पर अधिकार कर लिया जबकि सन्धि की शर्तों के अनुसार ये प्रदेश उसे (राणा को) ही था। मिलने चाहिए। अतः दोनों पक्ष एक-दूसरे के विरुद्ध सैनिक तैयारी में जुट गए।





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(2) राणा सांगा और बबर की महत्वाकांक्षाओं का पालन - बबर और राणा सांगा दोनों ही अत्यधिक महत्वाकांक्षी मानसिकता वाले थे। राणा सांगा ने अपमान में ही नहीं अपितु पूरे उत्तरी भारत में अपनी शूरवीरता और पराक्रम की धाक स्थापित कर रखी है।] अत: बाबर राणा सांगा की शक्ति का दमन किए बिना उत्तरी भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सकता था। दूसरी ओर राणा सांगा भी बाबर के उत्तरी भारत में बढ़ते हुए प्रभाव से चिन्तित था। डॉ.जी.एन.शर्मा का कथन है कि दोनों शत्रु एक-दूसरे की शक्ति के परिवर्द्धन से भयभीत थे। दोनों का उत्तरी भारत में एक साथ रहना वैसा ही था जैसे एक म्यान में दो तलवारें।






(3) राजपूत अफगान संगठन - राजपूत और अफगान बाबर के प्रबल प्रतिद्वन्द्वी थे। राणा सांगा अफ़ग़ानों के साथ मिलकर बाबर को भारत से खदेड़ देना चाहता था। इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी राणा सांगा की शरण में पहुँच चुका था। हसनखाँ मेवाती भी अपने योद्धाओं को लेकर राणा साँगा के शिविर में सम्मिलित हो गया था। बाबर राजपूत-अफगान संगठन को अपने लिए खतरनाक मानता था। अत:उसने राजपूतों की शक्ति को नष्ट करने का निश्चय कर लिया।






(4) बाबर द्वारा जिहाद का नारा देना - बाबर अपने आपको इस्लाम धर्म का पोषक मानता था। उसने राणा सांगा के विरुद्ध इस युद्ध को जिहाद का रूप दिया और घोषित किया कि वह इस्लाम धर्म के गौरव के लिए युद्ध लड़ रहा था। दूसरी ओर राणा सांगा हिन्दू-धर्म एवं संस्कृति का प्रबल पोषक था। वह हिन्दू-धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने को तैयार था। अतः इस स्थिति में दोनों पक्षों में युद्ध होना स्वाभाविक था।





खानवां के युद्ध के परिणाम,राणा सांगा के पराजय के कारण




खानवा का युद्ध





मार्च,1527 में बाबर ने खानवा पहुँच कर अपनी सेना की व्यूह-रचना की। यहाँ खाइयाँ खोदी गईं, तोपों की गाड़ियों को जंजीरों से बाँध कर आगे रखा गया तथा गोलन्दाजों, घुड़सवारों तथा बन्दूकचियों को मैदान में जमाया गया। डॉ.ए. एल.श्रीवास्तव के अनुसार बाबर की सेना की संख्या 40 हजार से कम नहीं थी तथा राणा सांगा की सेना 80 हजार से अधिक नहीं थी। राणा सांगा भी 13 मार्च,1527 को खानवा पहुँच गया। 17 मार्च,1527 को प्रातः साढ़े नौ बजे के लगभग खानवा के मैदान में दोनों पक्षों में युद्ध शुरू हुआ। यद्यपि राजपूतों -ने मुगलों पर भयंकर प्रहार किये परन्तु बाबर के तोपखाने के आगे राजपूत अधिक देर तक नहीं टिक सके। राजपूत सैनिक तोपों की भयंकर अग्नि वर्षा के आगे ठहर नहीं सके। स्वयं राणा सांगा एक तीर की चोट से बेहोश हो गया। उसे घायल अवस्था में युद्धक्षेत्र से ले जाया गया।





खानवा के युद्ध में राणा सांगा की पराजय के कारण





(1) राजपतों में अनुशासन का अभाव - राणा सांगा की सेना में अनुशासन का अन था। राणा की सेना एक नेता के अधीन संगठित नहीं थी,बल्कि भिन्न-भिन्न राजपूत राजाओं सामन्तों के अधीन थी जिनकी स्वामिभक्ति राणा की अपेक्षा अपने सरदारों के प्रति अधिक भी ऐसी सेना पर राणा सांगा का प्रभुत्व नाममात्र का था। इसके विपरीत बाबर की सेना पर्णरूप से अनुशासित थी तथा एक सेनापति के नेतृत्व में युद्ध कर रही थी।





(2) बाबर का कुशल नेतृत्व - बाबर एक कुशल सेनानायक था। उसने खानवा के यद में तुलुगमा पद्धति से अपनी सेना की व्यूह-रचना की थी। उसने तोपखाने और घुड़सवार सेना का प्रयोग बड़ी कुशलता से किया, जिसके फलस्वरूप राजपूतों को पराजय का मुंह देखना पड़ा।





(3) बाबर की उत्तम युद्ध पद्धति - राजपूतों की अपेक्षा बाबर की युद्ध-पद्धति उत्तम थी। बाबर का तोपखाना बड़ा प्रभावशाली एवं शक्तिशाली था। मुगलों की तोपों की मार के आगे राजपूत अधिक देर तक नहीं टिक सके और उन्हें पराजय का मुँह देखना पड़ा। मुगलों के घुड़सवारों और तोपखाने का सामंजस्य इतना कुशल था कि राणा सांगा के योद्धा अधिक समय तक मुगलों का मुकाबला नहीं कर सके।





(4) राजपूतों की त्रुटिपूर्ण युद्ध - प्रणाली-राणा सांगा के अधिकांश सैनिक पैदल थे जबकि मुगलों की सेना में अधिकांश घुड़सवार थे। राजपूतों की सेना में तोपखाना तथा सुरक्षित सेना की कोई व्यवस्था नहीं थी। मुगलों द्वारा बारूद के प्रयोग, तोपों और बन्दूकों की तुलना में राजपूतों के तीर-कमान,भाले,तलवारें,बर्छ आदि निम्न प्रकार के अस्त्र थे।





(5) राजपूतों की युद्ध-प्रणाली का परम्परागत होना - राजपूतों की युद्ध प्रणाली रूढ़िवादा तथा परम्परागत थी। इसके विपरीत मुगलों की युद्ध-पद्धति वैज्ञानिक और नवीन थी। इसम अफगानों, तुर्कों, मंगोलों आदि की युद्ध-पद्धतियों का समावेश था। मुगल रिजर्व तथा घुमाव पद्धति को प्रधानता देते थे तथा बारी-बारी से इनका प्रयोग करते थे। इसलिए राजपूत सेना की पराजय हुई।





(6) राणा सांगा द्वारा अपने आपको यद्ध में झोंक देना - राणा सांगा की पराजय का एक कारण यह भी था कि उसने घमासान युद्ध में अपने आपको झोंक दिया था। इसके विपर बाबर ने एक ही स्थान पर खड़े होकर युद्ध का संचालन किया तथा अपने आपको शत्रु कर नहीं आने दिया। जब राणा युद्धक्षेत्र में लड़ते हुए घायल हो गया तो युद्ध-भूमि से उसक हद राजपूत सेना में भगदड़ मच गई और बाबर की विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया।





(7) राणा सांगा की भूलें - राणा सांगा ने बयाना की विजय के पश्चात् लगन महीने का समय नष्ट कर दिया और मुगलों पर तुरन्त धावा नहीं बोला। डॉ. आझा कि राणा सांगा की पराजय का मुख्य कारण उसका बयाना की विजय के पश्चात् तुर न करके बाबर को तैयारी करने का पूरा समय देना था।





खानवा युद्ध के परिणाम





(1) राजपूतों की शक्ति पर कुठाराघात - खानवा की लड़ाई के परिणामस्वरूप राजपूतों नशक्ति तथा प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचा । इस युद्ध में राजपूतों को धन-जन की अपार क्षति उठानी पड़ी।





(2) मुगलों के हाथ भारत की सत्ता आना - इस युद्ध के फलस्वरूप भारत में मुगलों के बढतापूर्वक स्थापित हो गए। अब राजसत्ता मुगलों के हाथों में आ गई,जो लगभग 200 वर्ष से अधिक समय तक उनके पास बनी रही। अब बाबर को चुनौती देने वाली कोई प्रमुख शक्ति नहीं रही।





(3) राजपूतों का हिन्दू - साम्राज्य बनाने के स्वप्न की समाप्ति-खानवा के युद्ध ने राजपूतों की शक्ति को प्रबल आघात पहुँचाया। हिन्दू-साम्राज्य बनाने के राजपूतों के स्वप्न चकनाचूर हो गए। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव का कथन है कि “विदेशी राज्य को मिटाने की राजपूतों की आकांक्षा पूर्णतः समाप्त हो गई। इसके पश्चात् राजस्थान के शासकों ने उत्तरी भारत में हिन्दू राज्य पुनः स्थापित करने का सम्मिलित प्रयत्न कभी नहीं किया।”





(4) मेवाड़ की प्रतिष्ठा को आघात - खानवा के युद्ध ने मेवाड़ की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचाया। डॉ.जी. एन. शर्मा का कथन है कि सदियों से अर्जित मेवाड़ की प्रतिष्ठा को इस युद्ध से बड़ा धक्का पहुँचा जिसको समय की गति भी न भुला सकी।





(5) हिन्दू संस्कृति पर आघात - डॉ. रघुवीरसिंह का कथन है कि “राणा सांगा की हार और उसकी मृत्यु केवल मेवाड़ के लिए ही नहीं, अपितु राजस्थान के लिए भी बहुत ही घातक प्रमाणित हुई। राजस्थान की सदियों पुरानी स्वतन्त्रता तथा उसकी प्राचीन हिन्दू संस्कृति को सफलतापूर्वक अक्षुण्ण बनाये रख सकने वाला अब वहाँ कोई नहीं था।”





(6) बाबर का राज्य सुरक्षित होना - बाबर ने राणा सांगा से युद्ध मेवाड़ को विजित करने की दष्टि से नहीं था। वह जानता था कि जब तक राणा सांगा जीवित है मेरा साम्राज्य सुरक्षित नहीं रह सकता है। अतः खानवा के युद्ध में राणा सांगा के काम आ जाने पर वह अपने राज्य को सुरक्षित समझने लगा।


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