महाराणा सांगा द्वारा जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी: उत्तराधिकारी के लिए संघर्ष, गुजरात के सुल्तान के साथ संघर्ष, दिल्ली सल्तनत के साथ संघर्ष, मालवा के साथ संबंध, आदि संपूर्ण जानकारी


सांगा अपने पिता महाराणा रायमल की मृत्यु के बाद 1509 ई. में 27 वर्ष की आयु में मेवाड़ का शासक बना | मेवाड़ के महाराणाओं में वह सबसे अधिक प्रतापी योद्दा था । 

उतराधिकार के लिए संघर्ष - रायमल के जीवनकाल में ही सत्ता के लिएं पुत्रों के बीच आपसी संघर्ष प्रारम्भ हो गया | कहा जाता है कि एक बार कुंवर पृथ्वीराज, जयमल और संग्रामसिंह ने। अपनी-अपनी जन्मपत्रियाँ एक ज्योतिषी को दिखलाई। उन्हें देखकर उसने कहा कि ग्रह तो पुथ्वीराज और जयमल के भी अच्छे हैं परन्तु राजयोग संग्रामसिंह के पक्ष में होने के कारण मेवाड़ का स्वामी वही होगा। यह सुनते ही दोनों भाई संग्रामसिंह पर टूट पड़े। पृथ्वीराज ने हूल मारी जिसे संग्रामसिंह की एक आंख फूट गई। इस समय तो सांरगदेव (महाराणा रायमल के चाचा) ने बीच-बचाव कर किसी तरह उन्हें शांत किया, किन्तु दिनों-दिन कुंवरों में विरोध का 'भाव बढ़ता ही गया। सारंगदेव ने उन्हें समझाया कि ज्योतिषी के कथन पर विश्वास कर तुम्हें। आपस में संघर्ष नहीं करना चाहिये । 

इस समय सांगा अपने भाइयों के डर से श्रीनगर (अजमेर) के कर्मचन्द पंवार के पास अज्ञातवास बिता रहा था। रायमल ने उसे बुलाकर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया ।

 गुजरात के सुल्तान के साथ संघर्ष- सांगा के समय गुजरात और मेवाड़ के बीच संघर्ष का तात्कालीक कारण ईंडर का प्रश्न था। ईंडर के राव भाण के दो पुत्र सूर्यमल और भीम थे । राव भाण की मृत्यु के बाद सूर्यमल गद्दी पर बैठा किन्तू उसकी भी 1४ माह बाद ही मृत्यु हो गई । अब सूर्यमल के स्थान पर उसका बेटा रायमल ईडर की गद्दी पर बैठा । रायमल के अल्पायू होने का लाभ उठाकर उसके चाचा भीम ने गद्दी पर अपना अधिकार कर लिया। रायमल ने मेवाड़ में शरण ली, जहाँ महाराणा सांगा ने अपनी पुत्री की सगाई उसके साथ कर दी । 1515 ई. में रायमल ने महाराणा सांगा की सहायता से भीम के पुत्र भारमल को हटाकर ईंडर पर पुनः अधिकार कर लिया। 

भारमल को हटाकर रायमल को ईंडर का शासक बनाए जाने से गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर बहुत अप्रसन्न हुआ क्योंकि भीम ने उसी की आज्ञानुसार ईंडर पर अधिकार किया था। नाराज सुल्तान मुजफ्फर ने अहमदनगर के जागीरदार निजामुल्मुल्क को आदेश दिया कि वह रायमल को हटाकर भारमल को पुन: ईडर की गद्दी पर बैठा दे। निजामुलमुल्क द्वारा ईडर पर घेरा डालने पर रायमल पहाड़ों में चला गया और पीछा करने पर निजामुल्मुल्क को पराजित किया। ईंडर के आगे रायमल का अनावश्यक पीछा किए जाने से नाराज सुल्तान ने निजामुल्मुल्क को वापिस बुला लिया। इसके बाद सुल्तान द्वारा मुवारिजुल्मुल्क को ईडर का हाकिम नियुक्त किया गया। एक भाट के सामने एक दिन मुवारिजुल्मुल्क ने सांगा की तुलना एक कुत्ते से कर दी। यह जानकारी मिलने पर सांगा वागड़ के राजा उदयसिंह के साथ ईडर जा पहुँचा | पर्याप्त सैनिक न होने के कारण मुवारिजुल्मुल्क ईडर छोड़कर अहमदनगर भाग गया । सांगा ने ईंडर की गद्दी पर रायमल को बैठा दिया और अहमदनगर, बड़गनर, वीसलनगर आदि स्थानों को लूटता हुआ चित्तौड़ लौट आया। 

सांगा के आक्रमण से हुई बर्बादी का बदला लेने के लिए सुल्लान मुजफ्फर ने 1520 ई. में मलिक अयाज तथा किवामुल्मुल्क की अध्यक्षता में दो अलग-अलग सेनाएं मेवाड़ पर आक्रमण के लिए भेजी। मालवा का सुल्तान महमूद भी इस सेना के साथ आ मिला किन्तु मुर्लिम अफसरों में अनबन के कारण मलिक अयाज आगे नहीं बढ़ सका और संधि कर उसे वापिस लौटना पड़ा। 


दिल्ली सल्तनत के साथ संघर्ष - सांगा ने सिकन्दर लोदी के समय ही दिल्ली के अधीनस्थ इलाकों पर अधिकार करना शुरू कर दिया था किन्तु अपने राज्य की निर्बलता के कारण वह महाराणा के साथ संघर्ष के लिए तैयार नहीं हो सका। सिकन्दर लोदी के उतराधिकारी इब्राहीम लोदी ने 1517 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया । खातोली (कोटा) नामक स्थान पर दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ जिसमें सांगा की विजयी हुई । सुल्तान युद्ध के मैदान से भाग निकलने में सफल रहा किन्तु उसके एक शाहजादे को कैद कर लिया गया। इस युद्ध में तलवार से सांगा का बायां हाथ कट गया और घुटने पर तीर लगने से वह हमेशा के लिए लंगड़ा हो गया। खातोली की पराजय का बदला लेने के लिए 1518 ई. में इब्राहीम लोदी ने मियां माखन की अध्यक्षता में सांगा के विरुद्धद एक बड़ी सेना भेजी किन्तू सांगा ने बाड़ी (धौलपुर) नामक स्थान पर लड़े युद्ध गए में एक बार फिर शाही सेना को पराजित किया। 


मलवा के साथ सम्बन्ध - मेदिनीराय नामक एक हिन्दू सामंत ने मालवा के अपदस्थ सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को पुन शासक बनाने में सफलता प्राप्त की थी। इस कारण सुल्तान महमूद ने उसे अपना प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। सुल्तान के मुस्लिम अमीरों को मेदिनीराय की बढ़ती हुई शक्ति से काफी ईंष्र्या हुई और उन्होंने सुल्तान को उसके विरुद्ध बरगलाने में सफलता प्राप्त कर ली । मेदिनीराय महाराणा सांगा की शरण में मेवाड़ आ गया, जहाँ उसे गागरोण व चंदेशी की जागीरें दे दी गाई । 1519 ई. में सुल्तान महमुद मेदिनीराय पर आक्रमण के लिए रवाना हुआ। इस बात की खबर लगते ही सांगा भी एक बड़ी सेना के साथ गागरोण पहँच गया | यहाँ हुई लड़ाई में सुल्तान की बूरी तरह पराजय हुई। सुल्तान का पुत्र आसफखां इस युद्ध में मारा गया तथा वह स्वयं घायल हुआ। सांगा सुल्तान को अपने साथ चित्तौड़ ले गया, जहाँ उसे तीन माह कैद रखा गया। 

एक दिन महाराणा सांगा सुल्तान को एक गुलदस्ता देने लगा। इस पर उसने कहा कि किसी चीज के देने के दो तरीके होते हैं। एक तो अपना हाथ ऊँचा कर अपने से छोटे को देवें या अपना हाथ नीचा कर बड़े को नजर करें। में तो आपका कैदी हैं इसलिए यहाँ नजर का तो कोई सवाल ही नहीं और भिखारी की तरह केवल इस गुलदस्ते के लिए हाथ पसारना मुझे शोभा नहीं देता। यह उत्तर सुनकर महाराणा बहत प्रसन्न हुआ और गुलदस्ते के साथ सुल्तान को मालवा का आधा राज्य सौंप दिया। सुल्तान ने अधीनता के चिहस्वरूप रत्तजटित मुकुट तथा सोने की कमरपेटी महाराणा को सौंप दिये । आगे के अच्छे व्यवहार के लिए महाराणा ने सुल्तान के एक शाहजादे को जमानत के तौर पर चित्तौड रख लिया। महाराणा के इस उदार व्यवहार की मुस्लिम इतिहासकारों ने काफी प्रशांसा की है किन्तु राज्य के लिए यह नीति हानिकारक रही।


बाबर और सांगा- पानीपत के प्रथम युद् (1526 ई) में इब्राहीम लोदी को पराजित कर बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली। शीघ्र ही बाबर और सांगा के बीच संघर्ष प्रारस्भ हो गया जिसके निम्नलिखित कारण थे : 

(1). सांगा पर वचनभंग का आरोप- तुर्की भाषा में लिखी अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ में बाबर ने लिखा है कि ‘'सांगा ने काबुल में मेरे पास दूत भेजकर दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए कहा, उसी समय सांगा ने स्वयं आगरा पर हमला करने का वायदा किया था किन्तू सांगा अपने वचन पर नहीं रहा। मैंने दिल्ली और आगरा पर अधिकार जमा लिया तो भी सांगा की तरफ से हिलने का कोई चिह्ह दृष्टिगत नहीं हुआ।' सांगा पूर्व में इब्राहीम लोदी को अकेला ही दो बार पराजित कर चुका था, ऐसे में उसके विरुद्ध काबुल से बाबर को भारत आमन्त्रित करने का आरोप तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। 



(2). महत्वकाक्षाओं का टकराव- बाबर की इब्राहीम लोदी पर विजय के बाद सम्पूर्ण भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। ‘हिन्दूपत' (हिन्दू प्रमुख) सांगा को पराजित किए बिना ऐसा संभव नहीं था। दोनों का उत्तरी भारत में एक साथ बने रहना ठीक वैसा ही था जैसे एक म्यान में दो तलवारें। 


(3). राजपूत-अफगान मैत्री- यद्यपि पानीपत के प्रथम युद्ध में अफगान पराजित हो गए थे किन्तू वे बाबर को भारत से बाहर निकालने के लिए प्रयासरत थे। इस कार्य के लिए सांगा को उपयुक्त पात्र समझकर अफगानों के नेता हसनरखां मेवाती और मृतक सुल्तान इब्राहीम लोदी का भाई महमूद लोदी उसकी शरण में पहुँच गए। राजपूत-अफगान मोर्चा बाबर के लिए भय का कारण बन गया । अतः उसने सांगा की शाक्तित को नष्ट करने का फैसला कर लिया। 


(4). सांगा द्वारा सल्तनत के क्षेत्रों पर अधिकार करना पानीपत के युद्ध में इ्राहीम लोदी की पराजय से उत्पन्न अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए सांगा ने खण्डार दुर्ग (रणथम्भौर के पास) व उसके निकटवती 200 गांवों को अधिकृत कर लिया जिससे वहाँ के मुस्लिम परिवारों को पलायन करना पड़ा। दोनों शासकों ने भावी संघर्ष को देखते हुए अपनी-अपनी स्थिति सुद्रूढ करनी प्रारम्भ कर दी । मुगल सेनाओ ने बयाना, धौलपुर और ग्वालियर पर अधिकार कर लिया जिससे बाबर की शक्ति में वृद्धि हुई । इधर सांगा के निमन्त्रण पर अफगान नेता हसनखां मेवाती और महमूद लोदी, मारवाड़ का मालदेव, आमेर का पुथ्वीराज, ईंडर का राजा भारमल, वीरमदेव मेंड़तिया, वागड़ का रावल उदयसिंह, सलूम्बर का रावत रत्नसिंह, चंदेरी का मेदिनीराय, सादड़ी का झला अज्जा, देवलिया का रावत बाघसिंह और बीकानेर का कुंवर कल्याणमल ससैन्य आ डटे। 

फरवरी 1527 ई. में सांगा रणथम्भौर से बयाना पहुँच गया, जहाँ इस समय बाबर की तरफ से मेंहदी ख्वाजा दुर्ग रक्षक के रूप में तैनात था। सांगा ने दुर्ग को घेर लिया जिससे दुर्ग में स्थित मुगल सेना की स्थिति काफी खराब हो गई । बाबर ने बयाना की रक्षा के लिए मोहम्मद सुल्तान मिर्जा की अध्यक्षता में एक सेना भेजी किन्तु राजपूतों ने उसे खदेड दिया। अंतः बयाना पर सांगा का अधिकार हो गया । बयाना विजय बाबर के विरुद्ध सांगा की एक महत्वपूर्ण विजय थी। 

इधर बाबर युद्ध की तैयारियों में जुटा था किन्तु महाराणा की तीव्रगति, बयाना की लड़ाई और वहँ से लौटे हुए शाहमंसूर किरमती आदि से राजपूतों की वीरता की प्रशंसा सुनकर चिंतित हो गया। इसी समय एक मुर्लिम ज्योतिपी मुहम्मद शरीफ ने भविष्यवाणी की कि 'मंगल का तारा पश्चिम में है, इसलिए पूर्व से लड़ने वाले पराजित होंगे। बाबर की सेना की रिथति पूर्व में ही थी। चारों तरफ निराशा का वातावरण देख बाबर ने अपने सैनिकों को उत्साहित करने के लिए कभी शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और शराब पीने की कीमती सुराहियां व प्याले तुड़वाकर गरीबों में बांट दिये । सैनिकों के मजहबी भावों को उत्तेजित करने के लिए उसने कहा "सरदारों और सिपाहियों। प्रत्येक मनुष्य, जो संसार में आता है, अवश्य मरता है। जब हम चले जायेंगे तब एक खुदा ही बाकी रहेगा। जो कोई जीवन का भोग करने बैठेगा, उसको अवश्य मरना भी होगा । जो इस संसारूपी सराय में आता है, उसे एक दिन यहाँ से विदा भी होना पड़ता है। इसलिए बदनाम होकर जीने की अपेक्षा प्रतिष्ठा के साथ मरना अच्छा है। मैं भी यही चाहता हूँ कि कीर्ति के साथ मुत्यू हो तो अच्छा होगा, शरीर तो नाशवान है। खुदा ने हम पर बड़ी कुपा की है कि इस लडाई में हम मरेंगे तो शहीद होंगे और जीतेंगे तो गाजी कहलायेंगे। इसलिए सबको कुरान हाथ में लेकर कसम खानी चाहिए कि प्राण रहते कोई भी युद्ध में पीठ दिखाने का विचार न करे । इसके साथ ही बाबर ने रायसेन के सरदार सलहदी तंवर के माध्यम से सुलह की बात भी चलाई | महाराणा ने इस प्रस्ताव पर अपने सरदारों से बात की किन्तू सरदारों को सलहदी की मध्यस्थता पसंद नहीं आई। इसलिए उन्होंने अपनी सेना की प्रबलता और बाबर की निर्बलता प्रकट कर संधि की बात बनने न दी। संधि वार्ता का लाभ उठाते हुए बाबर तेजी से अपनी तैयारी करता रहा और खानवा के मैदान में आ डटा। 

कविराज श्यामलदास कृत ‘वीर विनोद' के अनुसार 16 मार्च 1527 ई. को सुबह खानवा (भरतपुर) के मैदान में युद्ध प्रार्भ हुआ। पहली मुठभेड़ में बाजी राजपूतों के हाथ लगी किन्तु अचानक सांगा के सिर में एक तीर लगने के कारण उसे युद्ध भूमि से हटाना पड़ा । युद्ध संचालन के लिए अब सरदारों ने सलूम्बर के रावत रत्नसिंह चूण्डावत से सैन्य संचालन के लिए प्रार्थना की। रत्नसिंह ने यह कहते हुए उक्त प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया कि मेरे पूर्वज मेवाड़ का राज्य छोड़ चुके हैं इसलिए में एक क्षण के लिए भी राज्य चिद्ह धारण नहीं कर सकता परन्तु जो कोई राज्यछत्र धारण करेगा, उसकी पूर्ण रूप से सहायता करूंगा और प्राण रहने तक शत्रु से लडूंगा । इसके बाद झाला अज्जा को हाथी पर बिठा कर युद्ध जारी रखा गया। राजपूतों ने अंतिम दम तक लड़ने का निश्चय किया किन्तु बाबर की सेना के सामने उनकी एक न चली और उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा | विजय के बाद बाबर ने गाजी की पदवी धारण की और विजय-चिह्ह के रूप में राजपूत सैनिकों के सिरों की एक मीनार बनवाई। 


सांगा की पराजय के कारण 

(1). इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार सांगा की पराजय का मुख्य कारण बयाना विजय के तुरन्त बाद ही युद्ध न करके बाबर को तैयारी करने का पूरा समय देना था। लम्बे समय तक युद्ध को स्थगित रखना महाराणा की बहुत बड़ी भूल सिद्ध हुई। महाराणा के विभिन्न सरदार देशप्रेम के भाव से इस युद्ध में शामिल नहीं हो रहे थे । सभी के अलग-अलग स्वार्थ थे, यहाँ तक कि कईयों में तो परस्पर शत्रुता भी थी । संधि वार्ताओं के कारण कई दिन शांत बैठे रहने से उनमें युद्ध के प्रति वह जोश व उत्साह नहीं रहा जो युद्ध के लिए रवाना होते समय था। 

(2). राजपूत सैनिक परम्परागत हथियारों से युद्ध लड़ रहे थे। वे तीर-कमान, भालों व तलवारों से बाबर की तोपों के गोलों का मुकाबला नहीं कर सकते थे। 

(3). हाथी पर सवार होकर भी सांगा ने बड़ी भूल की क्योंकि इससे शत्र को उस पर ठीक निशाना लगाकर घायल करने का मौका मिला । उसके युद्ध भूमि से बाहर जाने से सेना का मनोबल कमजोर हुआ।


(4). राजपूत सेना में एकता और तालमेल का अभाव था क्योंकि सम्पूर्ण सेना अलग-अलग सरदारों के नेतृत्व में एकत्रित हुई थी। ६. अपनी गतिशीलता के कारण राजपूतों की हस्ति सेना पर बाबर की अश्व सेना भारी पड़ी। बाबर की तोपों के गोलों से भयभीत हाथियों ने पीछे लौटते समय अपनी ही सेना को रौंद कर नुकसान पहुँचाया। 


खानवा युद्ध के परिणाम 

(1). भारत में राजपूतों की सर्वोच्चता का अंत हो गया। राजपूतों का वह प्रताप-सूर्य जो भारत के गगन के उच्च स्थान पर पहुँच कर लोगों में चकाचौँंध उत्पन्न कर रहा था, अब अस्तांचल की ओर खिसकने लगा। 


(2). मेवाड़ की प्रतिष्ठा और शक्ति के कारण निर्मित राजपूत संगठन इस पराजय के साथ ही समाप्त हो गया। 

(3). भारतवर्ष में मुगल साम्राज्य स्थापित हो गया और बाबर स्थिर रूप से भारत का बादशाह बन गया। 


अंतिम दिन- खानवा के युद्ध के बाद मूर्छित सांगा को बसवा ले जाया गया। होश आने पर सारा वृतांत जानकर सांगा काफी दुखी हुआ और युद्ध स्थल से इतनी दूर लाने के लिए अपने सरदारों को भला-बुरा कहा । बाबर से अपनी पराजय का बदलाा लेने के लिए जब सांगा चंदेरी जा रहा था तब मार्ग में झुरिच नामक स्थान पर उसके युद्ध विरोधी सरदारों ने जहर दे दिया। विष का प्रभाव होने पर कालपी नामक स्थान पर 30 जनवरी 1528 ई. को मात्र 46 वर्ष की आयु में सांगा का देहान्त हो गया। अमरकाव्य वंशावली के अनुसार सांगा का अंतिम संस्कार माण्डलगढ में किया गया। 

मूल्यांकन- महाराणा सांगा वीर, उदार, कृतज्, बुद्िमान और न्यायपरायण शासक था। अपने शत्र को कैद करके छोड़ देना और राज्य वापिस लौटा देने का कार्य सांगा जैसा वीर पुरुष ही कर सकता था। प्रारमभ से ही विपत्तियों में पलने के कारण वह एक साहसी वीर योद्धा बन गया था। अपने भाई पुथ्वीराज के साथ झगडे में उसकी एक आंख फूट गई, इब्राहीम लोदी के साथ हुए खातोली के युद्ध में उसका हाथ कट गया और एक पैर से वह लंगड़ा हो गया। मुत्यु समय तक उसके शरीर पर तलवारों व भालों के कम से कम 80 निशान लगे हुए थे जो उसे 'एक सैनिक का भग्नावशेष' सिद्ध कर रहे थे । शायद ही उसके शरीर का कोई अंश ऐसा हो जिस पर युद्धों में लगे हुए घावों के चिह्ह न हो। अपने पुरुषार्थ द्वारा सांगा ने मेवाड़ को उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया। अपने समय का वह सबसे बड़ा हिन्दू नरेश था जिसके आगे बड़े-बड़े शासक सिर झुकाते थे । जोधपुर और आमेर के राज्य भी उसका सम्मान करते थे। गवालियर, अजमेर, सीकरी, रायसेन, कालपी, चन्देरी, बूंदी, गागरोन, रामपुरा और आबू के राजा उसके सामंत थे। वह भारत का अंतिम नरेश था जिसके नेत्व में राजपूत नरेश विदेशियों को भारत से निकालने के लिए इकट्ठे हुए थे। बाबर ने उसकी प्रशंसा में लिखा है कि राणा सांगा अपनी बहादूरी और तलवार के बल पर बहुत बड़ा हो गया था। मालवा, दिल्ली और गुजरात का कोई अकेला सुल्तान उसे हराने में असमर्थ था । उसके राज्य की वार्षिक आय दस करोड़ थी। उसकी सेना में एक लाख सैनिक थे । उसके साथ न 7 राजा, 9 राव और 104 छोटे सरदार रहा करते थे । आपसी वैमनस्य के लिए प्रसिद्ध राजपूत शासकों को एक झुण्डे के नीचे लाना सांगा की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी ।

 सांगा धर्म और राजनीति के बड़े मर्मझज़ थे | अंगहीन होने पर एक बार उन्होंने अपने सरदारों के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि 'जिस प्रकार एक टूटी हुई मूर्ति पूजने योग्य नहीं रहली, उसी प्रकार मेरी आंख, भुजा और पैर अयोग्य होने के कारण मैं सिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं हूँ। इस स्थान पर जिसे उचित समझें, बैठावें। राणा के इस विनीत व्यवहार से सरदार बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि रणक्षेत्र में अंग-भंग होने से राजा का गौरव घटता नहीं अपितु बढ़ता है।' महमूद खिलजी को गिरफ्तार करने की खुशी में सांगा ने चारण हरिदास को चित्तौड का सम्पर्ण राज्य दे दिया था, किन्तू हरिदास ने सम्पूर्ण राज्य न लेकर 12 गांवों में ही अपनी खुशी प्रकट की। 

एक बड़ा राज्य स्थिर करने वाला होने के बावजूद भी सांगा को राजनीति में अधिक निपुण नहीं कहा जा सकता। अपने शत्रु को पकड़कर छोड़ देना उदारता की दृष्टि भले ही उत्तम कार्य हो परन्तु राजनीति के विचार से बुरा ही था। इसी तरह गुजरात के सुल्तान को हराकर उसके इलाकों पर अधिकार न करना भी उसकी भूल थी। अपने छोटे लडकों को रणथम्भौर जैसी बड़ी जागीर देकर उसने भविष्य के लिए कांटा बो दिया। राणा की विशेष प्रीतिपांत्रा होने के कारण हाडी रानी कर्मावती ने अपने दोनों पुत्रों विक्रमादित्य और उद्यसिंह के लिए रणथम्भौर की जागीर लेकर अपने भाई सूरजमल हाड़ा को उनका संरक्षक नियुक्त करवा लिया था। 

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